कश्मीर में निर्दोष पर्यटकों की हत्या घनघोर पापकर्म है। विडंबना ये है अब पक्ष और विपक्ष दोनो इसका अपने अपने तरीके से राजनैतिक फायदा उठाएंगे। त्रासदी का लाभ उठाना ही तो राजनीति है। पाकिस्तान के कुकृत्य तो जगजाहिर हैं। उसपे विलाप करना निरर्थक है। सवाल उठता है कि एक अलग थलग प्रयटन क्षेत्र के आस पास, जहां करीब २००० पर्यटक उपस्थित थे, उसके आस पास सिक्योरिटी क्यूं नहीं थी। अगर मीडिया रिपोर्टों को मानें तो उग्रवादियों ने फ़ुरसत से लोगों से उनके नाम, धर्म पूछे। इतना ही नहीं कुछ को तो कलमा तक बोलने को कहा। मतलब हिट और रन नहीं था। फ़ुरसत थी। और फ़ुरसत तब होती है जब विश्वास होता है कि सिक्योरिटी अरेंजमेंट बहुत ढीले है। यानी सिक्योरिटी गार्ड काफी दूर रहे होंगे। इसलिए हिन्दू मुस्लिम की आग में कूदने से पहले अपनी सरकार से हमें ये प्रश्न पूछना होगा की इतना बड़ा लूपहोल कैसे छोड़ दिया गया?
इस संबंध में ओशो का वक्तव्य सार्थक है: "दो तरह के लोग हैं दुनिया में। बड़ी पुरानी सूफी कथा है कि एक मूढ़ और एक ज्ञानी एक जंगल से गुजरते थे। दोनों रास्ता भूल गए थे। बिजली चमकी। बड़ी प्रगाढ़ बिजली थी। अंधकार क्षण भर को कट गया। मूढ़ ने आकाश में बिजली को देखा। ज्ञानी ने नीचे रास्ते को देखा। मूढ़ ने जब बिजली चमकी तो ऊपर देखा। जब बिजली चमकी तो ज्ञानी ने नीचे देखा। उस नीचे देखने में रास्ता साफ हो गया।"
इसलिए मूढ़ तो इस त्रासदी की कोंध में धार्मिक उन्माद की चमक ही देखेंगे। लेकिन ज्ञानवान आदमी इसमें रास्ता देखेगा। और रास्ते उचित प्रश्नों को उठाने पर ही निकलते हैं।